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तिरुनीलकण्ठ नायनार दिव्य चरित्र

      
प्रसिद्ध नागरी तिल्लै (चिदम्बरम), जहाँ आदि और अंत से परे भगवान का नृत्य नित्य होता है, जिसकी साक्षी स्वयं जगन्नमाता है, वहाँ एक भक्त रहते थे जिनका मन सदैव भगवान के स्मरण में लीन था । वह भगवान के भक्तों की सेवा करने के लिए उत्सुक थे । उनके हृदय कमल में भगवान हर बसते थे और वे एक अनुशासित वैवाहिक जीवन व्यतीत करते थे । 

सेक्किलार स्वामी – महान शिवभक्त
सेक्किलार स्वामी - राजा का चामर सेवा 


वे एक वंशानुगत कुंभार थे और मिट्टी के बर्तन बनाते थे । अपने उपजीविका के अनुसार वह मिट्टी के बर्तन बनाके पिनाकपाणि भगवान शिव के भक्तों को दान करते थे ।  एक बहुत ही सुंदर और सुशील युवती, जिसके हृदय में शिव निवास करते थे, के साथ उनका विवाह हुआ था । ध्यान के उच्च स्थितियों में वह ‘तिरुनीलकण्ठ’ का जाप करती थी । ‘नीलकंठ’ भगवान शिव का नाम है जिसका अर्थ है ‘वह जिसका कंठ नीला है’ । समुद्र मंथन के समय जब हालाहल विष प्रथम बाहर निकला तब सृष्टि में हाहाकार मच गया था , तब लोककल्याण के लिए भगवान शिव ने अपने कंठ में उस विष को धरण किया था जिसके कारण उनका कंठ नीला पड़ गया । शिव भगवान है, क्या कोई भी विष इतना प्रबल है कि उनमे कोई भी विकार (कंठ नीला होने जैसा) उत्पन्न कर सके? कदाचित, वह नील कंठ भक्तों को आश्वासन देने के लिए है, कि चाहे कितनी भी विषैली परिस्थिति हो वे हमारा त्याग नहीं करेंगे।         


दुर्भाग्यवश, इस सर्वगुण सम्पन्न दंपति के जीवन में कहीं से ग्रहण लग गया । युवावस्था ने कुंभार को विवाह से बाहर, शारीरिक सुख के लिए, एक गणिका के साथ संबंध रखने के लिए प्रवृत किया। उसकी पत्नी को इसका बड़ा दुख हुआ फिर भी उसने आदर्श पत्नी के सारे कर्तव्यों का निर्वाहन किया ।  एक दिन कुंभार अपने पत्नी को मनाने के लिए मधुर शब्द बोलकर, उसे आलिंगन करने आगे बड़े । तुरंत उनकी पत्नी ने पीछे हट कर कुंभार को यह कह कर रोका “ आप हमे हाथ न लगाए! उस तिरुनीलकण्ठ (भगवान शिव) के नाम पर !” उसी क्षण भगवान का नाम सुनकर, कुंभार ने अपने हाथ पीछे कर लिए । कामांतक भगवान शिव के नाम पर जो श्रद्धा और भक्ति थी, और चूँकि उनकी पत्नी ने ‘हम’ का प्रयोग किया था, कुंभार ने प्रण लिया कि वे उस समय से लेकर अपने स्वप्न में भी किसी स्त्री को स्पर्श नहीं करेंगे  । 


जब कोई सदाचारी मनुष्य, कोई भूल करता है, तब वह अपने नैतिकता के स्तर को और ऊंचा उठा लेता है एवं उसका अनुसरण और दृढ़ता से करता है । ऐसे लोगों का ही इतिहास के पृष्ठों पर नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाता है । कुंभार और उनकी पत्नी, दृढ़ आत्म-संयम के साथ जीवन व्यतीत कर रहे थे । उस दंपति ने वैवाहिक जीवन के सारे कर्तव्य निभाए, पर शारीरिक संबंधों से निवृत रहे । संसार के लिए वे एक आदर्श दंपति थे और उनकी यह व्यवस्था एक रहस्य ही थी । अपनी युवती पत्नी के समीप रहते इंद्रियों पर विजय पाना, विश्व पर विजय पाने से भी अधिक कठिन था  । जो व्यक्ति काम आतुरता में एक गणिका के पास जाने के लिए भी उद्यत थे , उनके लिए यह आत्म-प्रतिबंध कितना दुरसाध्य रहा होगा ? पर उन्होंने यह कठोर प्रतिज्ञा केवल भगवान के नाम के लिए लिया था । उनकी यह तपस्या इतनी कठोर थी कि , वर्षों तक इंद्रियों का दमन करके सिद्धि प्राप्त किए हुए महान तपस्वी के साथ उसकी तुलना की जा सकती थी । 

कई वर्ष बीत गए, पर इस दंपति के प्रण की दृढ़ता वैसी ही रही । पत्थर भी इतने वर्षों में चूर हो जाती है, पर अपने प्रतिज्ञा को इन दोनों ने एक क्षण के लिए भी भंग होने नहीं दिया । यौवन बीत गया, वृद्धावस्था की दुर्बलताएं उनके शरीर में दिखने लगी , पर दोनों ने संसार के सबसे ज्येष्ठ (शिव) के चरणों को अपने हृदय में पकडे रखा ।   

संसार को मुक्ति के मार्ग दिखाने, दक्षिणामूर्ति (शिव), जिन्होंने बरगद के वृक्ष के नीचे उपदेश दिया, एक शिवयोगी का वेश धारण कर नायनार के घर के द्वार पर प्रकट हो गए ।  नायनार ने शिवयोगी का स्वागत किया, सारे उपचार किए और उनके आदेश की प्रतीक्षा की । शिवयोगी ने नायनार को एक मिट्टी का बर्तन, यह कहते हुए दिया की वह बहुत ही विशेष है और उसे उनके  पुनरागमन तक सुरक्षित रखे । भगवान के भक्तों के सेवक, ने उस मिट्टी के बर्तन को एक सुरक्षित स्थान में रख दिया । 

अब, उस तस्करों में श्रेष्ठ तस्कर, जो बद्ध आत्माओं के पाशों को चुरा लेते हैं , ने उस मिट्टी के बर्तन को लुप्त कर दिया । कई दिनों बाद वह शिवयोगी लौटा और उसने अपने बर्तन को नायनार से माँगा । नायनार ने हर जगह ढूंढा पर उसको वह बर्तन नहीं मिला। जो प्रपंच के अनेकों सृष्टि और संहार के साक्षी है, अविनाश जिनका एक नाम है, उन्होंने पुनः पुनः पूछ कर नायनार की आकुलता को बढाई । नायनार ने हार मानकर, शिवयोगी से क्षमा याचना मांगी और एक नए मिट्टी के बर्तन को बनाने का प्रस्ताव रखा । पर मुक्ति प्रदान करने वाले भगवान शिव, अटल थे की उन्हे वही बर्तन चाहिए । उस मिट्टी के बर्तन की जगह स्वर्ण बर्तन भी शिवयोगी को स्वीकार्य नहीं था । अब नायनार की असफलता को देखकर शिवयोगी उनपर छल आरोप लगाने लगे । पर नायानार अपनी निर्दोषता सिद्ध करने के इच्छुक थे । इसपर शिवयोगी ने नायनार को अपने पुत्र का हाथ पकडकर, तटाक में आप्लावन कर निर्दोषता की शपथ लेने कहा । पर नायनार का कोई पुत्र नहीं था । फिर शिवयोगी ने उसे अपनी पत्नी का हाथ पकड़कर तटाक में आप्लावन कर शपथ लेने कहा । इस प्रस्ताव को भी अपनी पूर्व प्रतिज्ञा के कारण नायनार स्वीकार नहीं कर सके । क्रुद्ध हो कर शिवयोगी सीधे , तिल्लै मंदिर के न्याय सभा में पहुँच गए । न्याय सभा में नायनार ने स्वीकार किया कि उन्होंने शिवयोगी से मिट्टी का बर्तन लिया था पर अब वह उसे ढूंढने में असमर्थ है । न्याय सभा ने शिवयोगी का समर्थन करते हुए नायनार का पत्नी के साथ तटाक में आप्लवन कर शपथ लेने को मान्य ठहराया ।    

न्याय सभा में नायनार ने अपनी प्रतिज्ञा के बारे में कुछ भी नहीं कहा । चिदम्बरम का मंदिर, जहाँ भगवान शिव अपनी शक्ति के साथ नित्य योग में रहते है,  वहाँ नायनार अपनी पत्नी के साथ तटाक के पास आ गए। वह निष्पाप कुंभार ने बाँस की लकड़ी की एक ओर पकडी थी और उसकी पत्नी ने उसी लकड़ी की दूसरी ओर पकडी थी।  इस दृश्य को देखने इकट्टे हुए सभी के सामने कुंभार ने अपनी पत्नी को स्पर्श न करने की प्रतिज्ञा के बारे में बताया। फिर दोनों उस डंडे को पकड कर एक साथ तटाक के पानी के नीचे चले गए। जब वे दोनों बाहर निकले तो एक चमत्कार हुआ, दोनों अब वृद्ध नहीं रहे, यौवन और सुंदरता में चमक रहें थें । वह शिवयोगी भी अदृश्य हो गया । उसी समय क्षितिज पर वृषभ पर विराजमान भगवान शिव और पार्वती ने दर्शन दिये। भगवान शिव ने दोनों की इंद्रियों को वश में रखने के लिए प्रशंसा की । फिर दोनों को नित्य यौवन और शिवपद प्रदान किया । 

इसमे कोई आश्चर्य नहीं है कि पट्टिनतार कहते है – ‘ मैं उतना महान नहीं हूँ, जितना की वह भक्त जिसने भगवान के नाम के लिए अपनी युवा अवस्था त्याग करदी!’ तिरुनीलकण्ठ नायनार ने जो सम्मान भगवान शिव के नाम को दी और जिस श्रद्धा से अपने प्रण का निर्वाह किया, वह हमारे  स्मरण में सदैव रहे ।   

गुरु पूजा  :  तै /विसाकम  या कुम्भ/विशाखा 

हर हर महादेव 

 

Thiruneelakanta Nayanar's life enacted as Drama

Birth place of Thirunilakanta Nayanar

The history of Thirunilakantha Nayanar

The puranam of Tirunilakanta Nayanar in English Poetry

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