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अप्पूदि अडिकल नायनार दिव्य चरित्र

अप्पूदि अडिकल नायनार का जीवन इस बात का प्रख्यात उदाहरण है कि कैसे एक पूरे परिवार ने भगवान शिव के भक्तों की सेवा के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। अडिकल तिङ्कलूर ग्राम में रहते थे, जहाँ आदिकाल में चंद्रमा ने भगवान शिव की पूजा की थी। विष को अपने कंठ में रोकने वाले भगवान नीलकंठ की भक्ति ही अडिकल का अस्तित्व था। क्रोध, असत्य, छल, मोह तथा अन्य निम्न विचारों का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा, जैसे धुंध से सूर्य पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। उनका जन्म वैदिक ब्राह्मणों की परंपरा में हुआ था। हालाँकि उन्होंने शब्दों के सम्राट, तिरुनावुक्करसु को कभी नहीं देखा था, किन्तु उनकी भक्ति और भगवत कृपा से, अडिकल उनकी मानसिक पूजा करते थे।

Appudhi Adikal Nayanar - The History of Appudhi Adikal Nayanar
अप्पूदि अडिकल - अप्पर की सेवा के लिए क्या आवश्यक है इस पर ध्यान केंद्रित हैं!

वागीश के प्रति अडिकल का प्रेम इतना अधिक था कि वे तिरुनावुक्करसु के नाम से सेवा कार्य करते थे। उन्होंने अपने संतानों के नाम, अपनी गायों के नाम, खाना पकाने के पात्रों और अपने घर में प्रत्येक वस्तु का नाम तिरुनावुक्करसु रखा था। प्रायः, उन पर छोड़ दिया जाता तो स्वयं का नाम भी तिरुनावुक्करसु रख लिया होता! उन्होंने वागीश को कभी प्रत्यक्ष नहीं देखा था, किन्तु सदैव उनका नाम और भगवान के प्रति उनकी सेवा का स्मरण करते थे। उन्होंने पथिकालय बनवाईं, तालाब खुदवाएं, कई स्थानों पर यात्रियों के लिए भीषण गर्मी में ठंडे जल की व्यवस्था के साथ श्रेणिका लगवाएं और वागीश के नाम पर शंभु के सेवकों के लिए अन्य कई सुविधाएं प्रदान किया। इन सब में मुख्य विषय यह था कि कहीं भी उनका नाम नहीं दिखाई दिया। सभी सेवा भगवान शंकर के सेवक, उन महान तिरुनावुक्करसु के नाम पर चल रहा था, जो कि भगवान की पूजा और सेवा करने के पश्चात (उलवर पणी - एक छोटे उपकरण के साथ मंदिरों के परिसर को नष्ट पहुंचाने वाले कीटों और तृण को हटाना) तिरुपलनम से तिङ्कलूर की ओर आ रहे थे । जैसे सांसारिक जीवन की वेदना को कम करने हेतु भगवान अपने भक्तों को मन की शांति प्रदान करते हैं वैसे ही सूर्य के ताप से उत्पन्न कष्ट को कम करने हेतु, उन्होंने एक जल आश्रय देखा। वागीश जल ग्रहण करने के लिए उस आश्रय स्थल पर पहुंचे। वे उस पूरे आश्रय स्थल पर तिरुनावुक्करसु नाम लिखे देखकर आश्चर्यचकित रह गये। उन अत्यंत विनम्र मुनि ने वहां उस सेवा को चलाने वाले लोगों से प्रायोजक का नाम पूछा। उन्होंने सूचित किया कि यह कई सेवाओं में से मात्र एक है जो अप्पूदि अडिकल नामक एक व्यक्ति द्वारा की जाती है, जो पूरे विश्व की भलाई के लिए प्रतिदिन पवित्र हवन करते हैं।

तिरुनावुक्करसु अप्पूदि अडिकल के घर पहुंचे। जैसे ही अप्पूदि अडिकल ने सुना कि पवित्र गंगा को धारण करने वाले भगवान के एक भक्त उनके द्वार पर आये है, वे उनका स्वागत करने के लिए आगे बढ़े। यह जाने बिना कि वे कोई और नहीं उनके आराध्य ही थे, उन्होंने उन शिवभक्त को साष्टांग प्रणाम किया, जो उनके पूर्व साष्टांग प्रणाम कर रहे थे। अप्पूदि अडिकल ने भगवान के प्रति आभार व्यक्त किया कि उन्हें परमेश्वर से परिपक्व प्रेम करने वाले एक सज्जन भक्त की सेवा करने का अवसर मिला। तिरुनावुक्करसु, जो सदैव केवल भगवान की सेवा के विषय में सोचते थे, ने बताया कि उन्होंने अच्छा जल आश्रय देखा और स्थापित की गई अन्य सेवाओं के बारे में भी सुना, किन्तु उन्हे आश्चर्य हुआ कि अडिकल के नाम के स्थान पर किसी अन्य नाम का उपयोग किया गया था। अपने आराध्य के नाम को "किसी अन्य नाम" कहने से क्रोधित होकर अप्पूदि अडिकल ने कहा, "आप क्या कह रहे हैं! क्या जिस व्यक्ति ने अपनी भक्ति के बल पर राजा के समर्थन प्राप्त जैनों से युद्ध जीता, उनका नाम आपके लिए ‘किसी अन्य नाम’ है? संसार उन निष्कलंक की कीर्ति जानता है, जिन्होंने परमेश्वर के प्रति अपने प्रेम से, समुद्र में क्षिप्त, स्वयं से बंधे चट्टान को नाव बना दिया था। इस पवित्र वेश में आप अप्रिय शब्द बोलते हैं! आप कौन हैं? आप कहां से आए हैं?"

विनम्र, तिरुनावुक्कारसु ने अपने प्रति प्रेम को जानकर कहा, "मैं ही वह मूर्ख व्यक्ति हूं जो भगवान शिव की महानता को समझे बिना किसी अन्य धर्म में सम्मिलित हो गया और गंभीर उदर पीड़ा से भगवान की करुणा से बचा लिया गया।" अप्पूदि अडिकल की स्थिति का वर्णन करने के लिए स्तब्ध, अवाक और भयभीत जैसे शब्द पर्याप्त नहीं हैं जब उन्हें बोध हुआ कि वे भक्त कोई और नहीं उनके आदरणीय तिरुनावुक्करसु ही थे। वे तुरंत भूमि पर गिर गये और उनके चरण पकड़ लिए। उनके जिह्वा पर कोई भी शब्द नहीं आ रहे थे। उन्हे ऐसा अनुभव हो रहा था जैसे किसी निर्धन मनुष्य को अकस्मात सोने का ढेर मिल गया हो। वे आनंद में गीत गाते नृत्य करने लगे। वे अपने पूरे परिवार, मित्रों और बंधुओं को महान मुनि को प्रणाम करने के लिए ले आये। उन्होंने वागीश के चरण धोने के लिए जिस जल का प्रयोग किया, उसे अपने ऊपर छिड़का। उन्होंने पूज्य मुनि से अपने घर पर भोज स्वीकार करने का अनुरोध किया। जब तिरुनावुक्करसु ने इसे स्वीकार किया, तो अडिकल जानते थे कि यह एक वरदान था जो उनके अपने अच्छे कर्म से भी अधिक, सर्वशक्तिमान भगवान की कृपा के कारण मिला था। उनकी पत्नी ने कई प्रकार के मनभावन भोजन बनाये। दंपति ने अपने सबसे बड़े पुत्र, जिसका नाम मूत्त (ज्येष्ट) तिरुनावुक्करसु था, से भोजन परोसने के लिए केले के पत्ते लाने के लिए कहा। वह नवयुवक उन उत्कृष्ट माता-पिता के घर जन्म लेने को अपना सौभाग्य मानकर शीघ्रता से कार्य में लग गया। जैसे ही उसने पत्ते काटे, एक साँप ने उसके हाथ में डँस लिया। उस महान नवयुवक भक्त ने विष से मरने से पूर्व अपने माता-पिता को पत्तियां सौंपने में शीघ्रता की और संकल्प किया कि वह सांप के डँसने के विषय को रहस्य रखेगा ताकि मुनि के भोज में विलंब न हो। क्या ऐसे गुणवान नवयुवक के पालन करने के लिए पिता की प्रशंसा की जानी चाहिए या पिता के सिद्धांतों पर चलने के लिए युवक की प्रशंसा की जानी चाहिए? इस संदर्भ में पूरे परिवार ने ही उत्कृष्टता का प्रमाण दिया था।

माता-पिता को सांप के डँसने के विषय में उस समय पता चला जब उनका पुत्र केले के पत्ते सौंपते ही मृत होकर गिर पड़ा। किन्तु, उनके मन में सर्वोपरि वागीश का आतिथ्य करने की उत्सुकता होने के कारण, उन्होंने अपने प्रिय पुत्र को एक चटाई में लपेटकर छुपा दिया। भोज में विलंब न हो, इस कारण अडिकल वापस मुनि के पास गये। भोजन के लिए बैठने से पूर्व, अप्पूदि अडिकल ने मुनि के चरण धोए और तिरुनावुक्करसु ने दंपति और उनके बच्चों को पवित्र भस्म से आशीर्वाद दिया। उस समय, उनके ज्येष्ट पुत्र को वहाँ न पाकर, वागीश ने उसके विषय में पूछा। घटना का विवरण देने में संकोच करते हुए, अडिकल ने बस इतना कहा, "वह अब उपयोगी नहीं रहेगा।" इससे तिरुनावुक्कारसु के हृदय को आघात पहुंची और उन्होंने विवरण जानने की इच्छा प्रकट की। हालाँकि वे अपने आराध्य के लिए आतिथ्य मे विघ्न उत्पन्न नहीं करना चाहते थे, किन्तु छिपाने में असमर्थ, अप्पूदि अडिकल ने पूरी घटना बताई। उनके कृत्यों से चकित होकर, तिरुनावुक्करसु ने अपने मंत्रमुग्ध शब्दों में, देवराम "ओनरू कोलम अवर चिंदै उयरवरै" के साथ नवयुवक को पुनर जीवित करने के लिए भगवान से प्रार्थना की। सच्चे भक्त के लिए सर्वशक्तिमान भगवान सदैव कुछ भी करने के लिए तत्पर रहते हैं। जबकि सारा गाँव नवयुवक के पुनर जीवित होने प्रशंसा कर रहा था, अडिकल को इस बात की चिंता थी कि उनके कारण भोज  में विघ्न पड़ा!

तिरुनावुक्करसु भोज में भाग लेने और अडिकल की निराशा को दूर करने उनके घर आया। अप्पूदि अडिकल ने केले के पत्ते पर भोजन की व्यवस्था की। मुनि ने उन्हे और उनके बच्चों को अपने साथ भोजन करने के लिए कहा। इस प्रकार उस भोज से अडिकल का परिवार और मुनि दोनों संतुष्ट हुए। कुछ दिनों तक उनके साथ रहने के पश्चात, सरल एवं मीठे शब्दों के सम्राट, भगवान की स्तुति करने की इच्छा से तिरुपलनम के लिए प्रस्थित हुए, जहां उन्होंने देवारम में अप्पूदि अडिकल के प्रेम की प्रशंसा की। ईश्वर के प्रति प्रेम और तिरुनावुक्कारसु के प्रति भक्ति के पारस्परिक संबंध से बढ़ते, अडिकल सहजता से प्रभु के चरणों में पहुंच गये। अप्पूदि अडिकल नायनार और उनके परिवार की निस्वार्थ सेवा हमारे मन में बनी रहे।

गुरु पूजा : तै / सदयम् या मकर / शतभिष

हर हर महादेव 

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1. तिरुनावुक्करसु (वागीश) नायनार दिव्य चरित्र
 

63 नायनमार - महान शिव भक्तों का चरित्र 


 

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